अन्नपूर्णा मन्त्र

         ‘ह्रीं नमे भगवति महेश्र्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा’ यह सत्रह अक्षरों का मन्त्र है। इस मन्त्र के आरम्भ में ॐ लगाकर साधना करने से भगवती साधक को अन्न, मुक्ति और वैभव देती हैं। आरम्भ में ‘ह्रीं’ लगाकर जप करने से यह सभी अभीष्ट-प्रदायक होता है। श्रीबीज ‘श्रीं’ लगाने से सुख की वृध्दि होती। वाग्बीज ‘ऐं’ लगाने वागीशता मिलती है। कामबीज ‘क्लीं’ से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होतीं। प्रणव और माया ‘ॐ ह्रीं’ लगाकर मन्त्र-साधना से भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं। माया और श्रीबीज लगाने से वैभव मिलता है। श्रीं-ह्रीं के योग से सर्वसम्पत्ति का लाभ होता है।

         भगवती अन्नपूर्णा की पूजा-पध्दति यह है कि पहले सामान्य पूजा-पध्दति के क्रम से प्रात: कृत्यादि से पीठन्यासपर्यन्त कर्म समाप्त करके भगवती भुवनेश्वरी के पूजाक्रम में कथित विधि से हृदयकमल के केशर के मध्य में भुवनेश्वरी पीठमन्त्रोक्त पीठशक्तियों का न्यास करके इस प्रकार ऋष्यादि न्यास करे-शिरसि ॐ ब्रह्मणो नम:। मुखे पंक्तये छन्दसे नम:। हृदये अन्नपूर्णायै देवतायै नम:।

करन्यास-

ह्रीं अंगुष्ठाभ्यां नम:। ह्रीं तर्जनीभ्यां नम:। ह्रीं मध्यमाभ्यां नम:। ह्रीं अनामिकाभ्यां नम:। ह्रीं कनिष्ठिकाभ्यां नम:। ह्रीं करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:।

षडंगन्यास-

ह्रीं हृदयाय नम:। ह्रीं शिरसे स्वाहा। ह्रीँ शिखायै वषट्। ह्रीं कवचाय हुं। ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्। ह्रीं अस्त्राय फट्। तत्पश्चात् निम्नवत् ध्यान करे-

रक्तां विचित्रवसनां    नवचन्द्रचूङामन्नप्रदाननिरतां     स्तनभारनम्राम्।  

नृत्यन्तमिन्दुशकलाभरणं विलोक्य हृष्टां भजे भगवतीं भवदु:खहन्त्रीम्।।

लाल आभा वाली, अनुपम सुन्दर वस्त्राभूषित नव चन्द्र से सुशोभित केशपाश वाली भगवती अन्नपूर्णा स्तनों के भार से झुकी हुई हैं। चन्द्रादि आभूषणों से युक्त भगवाम शिव को नृत्य करते हुए देखते प्रसन्न होकर अन्नदान करती हैं। ऐ आनन्ददायिनी भगवती का मैं भजन करता हूँ। इस प्रकार ध्यान करके मानसोपचार से पूजा करके शंखस्थापन करे। तब सामान्य पूजा-पध्दति के क्रम से पीठ पूजा करे। भगवती भुवनेश्वरी की पूजा-पध्दति-क्रम से पीठदेवता और पीठशक्तियों की पूजा करे। तब ध्यान-आवाहनादि करके पञ्च पुषपाञ्जलि दान करे। इसके बाद आवरण पूजन आरम्भ करे। जैसे-

केशर मेँ षडंग पूजन करे- 

अग्निकोणो ह्रीं हृदयाय नम:। नैर्ऋते ह्रीं शिरसे स्वाहा। वायव्ये ह्रीं शिखायै वषट्। ऐशान्यां ह्रीं कवचाय हुं। मध्ये ह्रीं नेत्रत्रयाय वौषट्। चतुर्दिक्षु ह्रीं अस्त्राय फट्।

अष्टदलों में पूर्वादि क्रम से

अन्नपूर्णा मन्त्र

ॐ ब्राह्मयै नम:। ॐ माहेश्वर्यै नम:। ॐकौमार्यै नम:। ॐ वाराह्यै नम:। ॐ इन्द्राण्यै नम:। ॐ चामुण्डायै नम:। ॐ महालक्ष्म्यै नम:। शूद्र के लिये चौदहवाँ स्वर ‘औं’ ही प्रणव होता है।

 इसके बाद पूर्वादि दिशाओं में भुवनेश्वरी मन्त्रोक्त इन्द्रादि दश दिक्पालों और उनके वज्रादि अस्त्रों की पूजा करके धूपादि से विसर्जन तक के सभी कर्म समाप्त करके पूजन समाप्त करे।इस मन्त्र का पुरश्चरण सोलह हजार जप का होता है। जप का दशांश सोलह सौ हवन घृताक्त अन्न से करे।इस मन्त्र के प्रारम्भ में प्रणव ‘ॐ’ का योग करने से यह अट्ठारह अक्षरों का मन्त्र हो जाता है। इसी प्रकार ह्रीं-श्रीं के योग से भी यह अट्ठारह अक्षरों को मन्त्र होता है; किन्तु मायाहीन प्रणवादि, श्रीबीजादि और वाग्बीजादि के संयोग होने पर यह सप्तदशाक्षर ही माना जाता है। इसके सम्बन्ध में यह विशेष कर ज्ञातव्य है कि जिस बीज को मन्त्र के पहले लगाकर साधना करे, उसी बीज के द्वारा करांगन्यास करे। अन्नपूर्णा मन्त्र