मन्त्रसिद्धि के लक्षण Mantra Siddhi Ke Laksan
मन्त्रसिद्धि के लक्षण
विना क्लेश के मनोरथ सिद्ध होना ही मन्त्रसिद्धि का प्रधान लक्षण है। साधक जब जिस बात की इच्छा करे, वह उसी समय पूरी हो जाय तो समझे कि मन्त्रसिद्धि मिल गई है। मृत्यु-निवारण, देवता-दर्शन, विना क्लेश के प्रयोग की सिद्धि इत्यादि भी मन्त्रसिद्धि के लक्षण हैं।परकायाप्रवेश, परपुरप्रवेश, शून्य में विचरण, सर्वत्र अबाध गति, खेचरी, देवीगण से मिलन और उनकी कथा का श्रवण, भूच्छिद्रदर्शन, पार्थिव तत्त्वज्ञान, वाहन-भूषणादि बहुद्रव्य-लाभ, दीर्घ जीवन, राजा और राजपरिवार का वशीकरण, सभी स्थानों में चमत्कारपूर्ण कार्यप्रदर्शन, दृष्टिपात से रोग और विषनिवारण, चतुर्विध विद्याओं में पाण्डित्य, विषय-भोग से वैराग्य, मुक्ति-कामना, त्यागशीलता, सर्ववशीकरणक्षमता, अष्टांग योग का अभ्यास, सभी प्राणियों के प्रति दया, भोगेच्छा का त्याग, सर्वज्ञता- ये सब मन्त्र-सिद्धि के लक्षण हैँ। कीर्ति और वाहन-भूषणादि का लाभ, दीर्घ जीवन, राजप्रियता, राजपरिवारादि सर्व-जनवात्सल्य, लोकवशीकरण-शक्ति, प्रभूत ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति-पुत्र-दारादि सम्पत्- ये सब अधम सिद्धि के लक्षण हैं। मन्त्रसिद्धि की प्रथम अवस्था में ये सभी लक्षण प्रकट होते हैं। जो वास्तव में प्रकृत मन्त्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, वे साक्षात् शिवतुल्य होते हैं। इसमें सन्देह नहीं है।
तंत्रसार
“सकृदुच्चरितेऽप्येवं मंत्रे चैतन्य संयुते। दृष्यन्ते प्रत्यया यत्र पारपर्य्य तदुच्यते॥
“अर्थात्- “चैतन्य को संयुक्त करके मंत्र का एक बार उच्चारण करने से ही ऊपर बतलाये भावों का विकास हो जाता है।”
जिस साधक को मंत्र की सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है वह देवता का दर्शन कर सकता है, मृत्यु का निवारण कर सकता है, परकाया प्रवेश कर सकता है, चाहे जिस स्थान में प्रवेश कर सकता है, आकाश मार्ग में उड़ सकता है, खेचरी देवियों के साथ मिलकर उनकी बातचीत सुन सकता है। ऐसा साधक पृथ्वी के अनेक स्तरों को भेद कर भूमि के नीचे के पदार्थों को देख सकता है।
ऐसे महापुरुष की कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त हो जाती है, उसे वाहन, भूषण आदि समस्त सामग्री प्राप्त होने लगती हैं और वह बहुत समय तक जीवित रह सकता है। वह राजा और अधिकारी वर्ग को प्रभावित कर सकता है और सब तरह के चमत्कारी कार्य करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसे सत्पुरुष की दृष्टि पड़ते ही अनेक प्रकार की व्याधियाँ और विषों का निवारण हो जाता है। वह सर्व शास्त्रों में पारंगत होकर चार प्रकार का पाण्डित्य प्राप्त करता है।
वह विषय भोग के प्रति वैराग्य धारण करके केवल मुक्ति की ही कामना करता है। उसमें सर्व प्रकार की परित्याग की भावना और सबको वश में करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। वह अष्टाँग योग का अभ्यास कर सकता है, विषय भोग की इच्छा से दूर रहता है, सर्व प्राणियों के प्रति दया रखता है और सर्वज्ञता की शक्ति को प्राप्त करता है। सब प्रकार का साँसारिक वैभव, पारिवारिक सुख और लोक में यश उसे मंत्र-सिद्धि की प्रथम अवस्था में ही प्राप्त हो जाते हैं।